Sunday, December 2, 2012

नाचता पहाड़

जब किसान अपने बैलों के साथ
अपनी मिट्टी के गुण गाते हुए
खेतों में हल चलाता है
सामने का काला पहाड़
भाव -विभोर हो खुशी से चहक उठता है
जब औरतें भरी दोपहरी में
खेतों में *सुरपी* करते हुए
या फसलों को सींचते हुए
*घुरे* ,*सुगली* गाते हुए
हल्की- हल्की सीटी बजाते हैं
उनके *घुरे * और *सुगली * से लय मिलाते हुए
सामने का काला पहाड़ गुनगुना उठता है
जब गाँव की गलियों में
बच्चे सुबह से शाम
*डू -म - डू* या *थिप्पी * खेलते हुए
*अका* * माग* कहते हुए चीखते हैं
उनकी हर जीत और खुशी पर
सामने का काला पहाड़ बजाने लगता है तालियाँ
जब शोकग्रस्त गाँव के किसी आँगन से
*निशाण* और *बैंन्ज * की धुनों के साथ
कोई रुखसत होता है
सामने का काला पहाड़ झुक जाता है शोक से
एक अनदिखा आंसू उसके ह्रदय से टपक जाता है
जब रात दिन
सैंकडों गाडियां उसके सीने को रौदते हुए
अलग -अलग देसी बीट के धुन बजाते हुए
अपने -अपने मंजिलों की ओर जाते हैं
वो काला पहाड़ नाच उठता है उन धुनों पर
एक पागल आशिक की तरह
पहाड़ को यूं नाचता देख
पास बहती नदी अक्सर मुस्कुरा उठती है
पेड चहक उठते हैं
जबकि इन सब बातों से दूर
बर्फ के घरों में दुबके लोग
चुपके -चुपके, खामोश रात में
पहाड के पर काटने की बात कर रहे हैं
पहाड़ को बेचने की बात कर रहे है
और सामने का पहाड़
गुनगुना रहा है
वोही *घुरे * और *सुगली* से भरे दिनों को
तालियाँ बजा रहा है,बच्चो की हर खुशी पर
गमज़दा हो रहा है,गांव के हर गम में
और वो पहाड़ अब भी नाचता है
देसी बीट की उन्ही धुनों पर
* सुरपी * :- निडाई करना *घुरे* :- लोक गीत
*सुगली *:--- पुराने ज़माने में किसी की मृत्यु पर गाया जाने वाला शोक गीत. जिसमे मरने वाले की जीवन यात्रा का वर्णन होता था
*डू -म-डू * थिपी *:- खेलों के नाम , जैसे लुका -छिपी या पकड़म -पकडाई .
*अका/ माग * :-आंऊ कि नहीं
*निशाण* :- नगाडा
*बैंन्ज* :- बांसुरी

Thursday, November 15, 2012

घर

घर -1
याद आता है अक्सर
बचपन का वो घर
जहाँ हर चीज़ बिखरी होती
सब अस्त –व्यस्त
जहाँ कोई भी चीज़
सलीके से नहीं रखी जाती
फिर भी कितना सुकून मिलता था
उस घर के हर कोने में
घर -2
कितना मुस्कुराता है वो घर
जिसकी दीवारों में गूँजती है
बच्चों की किलकारियां
जिसके फर्श पर बिछी होती है
आपसी प्रेम का कालीन
और जिसकी छत पर
कोमल हाथ होता है बुजुर्गों का
घर -3
एक घर वो बना रहा है
ईंट, सीमेंट और पत्थर से
रोबदार और सख्त घर
एक घर में बना रही हूँ
अपनी भावनाओं का आटा गूँथ
रूप दे रही हूँ एक जीवन को
जिसकी नींव गहरी और पक्की है
घर -4
खँडहर है अब वो घर
जहाँ हर रात सजा करती थी
सितारों की महफ़िल
जहाँ दिन भर गूंजा करती थी
ठहाकों की आवाज़
अब वो घर अन्धकार में डूबा है
चाँद उसके दरवाज़े पर नहीं आता
उसके दिन खामोश हो गए है
रात और दिन कतरातें है
उससे मिलने के लिए भी
घर -5
घर आज घर नहीं रहे
वो बन गए है प्रतिष्ठा का प्रतीक
हर घर की गर्दन ऊंची है
कोई नहीं देखना चाहता नीचे
अपने आधार को
सब आसमान छूना चाहते है
अलग - अलग रंगों से पुते यह घर
अपने रंगीन होने पर इतराते हैं
इन घरों को नाचते हुए देख
दूर एक झोंपड़ी
मुस्कुराता है हर -पल
खुश है कि उसे नाचना नहीं आता
(16-11-2012)

Friday, November 2, 2012

बुतों में बुद्ध को ढूँढ रही हूँ

बुतों में बुद्ध को ढूँढ़ रही हूँ
कहीं पीतल का बुद्ध
कहीं सोने का बुद्ध
तो कहीं पत्थर का बुद्ध
हर जगह
एक पहाड़ की तरह
खामोश बुद्ध
और मैं ढूँढ रही हूँ
ऐसे बुद्ध को
जो मुझसे बातें करें
जो मेरी नादानी पर हँसे
जो मेरी गलतियों पर गुस्सा करें
जो मेरे नाटक का हिस्सा बने
जो मेरे साथ खेले
जो मेरे साथ रोए
पर हर जगह मिलता है मुझे
एक मौन बुद्ध
अलग - अलग परिभाषाओं में
परिभाषित बुद्ध
कहीं गुरु , तो कहीं भगवान ,
कहीं लोगों की आकांक्षाओं के बोझ तले
दबा हुआ बुद्ध
तो कहीं भौतिकता का प्रतीक बनता
जा रहा बुद्ध
कहाँ है वो शांत , सौम्य, मुस्कुराता बुद्ध
कहाँ है वो बुद्ध
जिसकी छवि सदियों से
इन पहाड़ों के ज़ेहन में है
कहाँ है वो बुद्ध
जिसे मैं बचपन से सुनती आ रही हूँ
चाँद मेरे सवालों पर हँसता है
हवाएं मुझे छूकर गुज़र जाती हैं
और दूर कहीं
पहाड़ की ख़ामोशी को तोडती
नदी का शोर सुनाई दे रहा है
और मैं बुतों में बुद्ध को ढूँढ रही हूँ

Tuesday, October 30, 2012

कुल्लू का दशहरा

(कुल्लू दशहरे को देखते हुए लगभग १५ साल हो गए . पर इसके पीछे के इतिहास के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी . इस साल इधर -उधर से कुछ जानकारी हासिल करके लिख रही हूँ .मैने हर संभव कोशिश की है कि सभी पहलुओं पर लिखूं .फिर भी शायद इसमें बहुत से कमियां होंगी .अगर कुछ छूट गया हो तो आप लोग इसमें जोड़ सकते हैं )
आज दशमी है . नवरात्रे के एक दिन बाद का दिन पूरे भारत में विजय दशमी के रूप में माना जाता है.जिसमे समस्त भारत में रावण के पुतले को जलाया जाता है. कुल्लू का दशहरा कई मायनों में देश के अलग हिस्से में मनाय जाने दशहरे से अलग है .जब देश के अन्य हिस्सों में रावण वध के साथ दशहरे का समापन होता है . कुल्लू में सात दिवसीय दशहरे का आरम्भ होता है .कुल्लू में दशहरा मनाने का सिलसिला राजा जगत सिंह के समय से शुरू हुआ . जिन्होंने कुल्लू में १६३७ से १६७२ तक शासन किया .कहा जाता है कि एक बार राजा जगत सिंह अपने सैनिकों के साथ मनिकर्ण जा रहे थे . जहाँ रास्ते में एक गाँव टिपरी आता है . वहां दो ब्राह्मणों का आपस में वैर था . एक ब्राह्मण ने राजा के साथ दूसरे ब्राह्मण की शिकायत की कि उसके पास हीरे - जवाहरात हैं . राजा उस ब्राह्मण (दुर्गा दत्त) को कहा कि जब मैं मनिकर्ण से वापिस आऊंगा तो वो हीरे - जवाहरात मेरे सैनिकों को दे देना ताकि उसे राजकोष में जमा कर लिया जाय .जब राजा के सैनिकों ने उस ब्राह्मण को बहुत तंग किया तो उसने खुद को और अपने परिवार को अपने कमरे में बंद कर लिया और आग लगा दी और अपने शरीर के एक- एक अंग को काट कर उस आग के हवाले करता रहा.
उस समय राजा का महल जगत सुख में हुआ करता था . जैसे ही वो घर पहुंचा और पीने के लिए पानी माँगा तो उसे खून ही दिखाई देने लगा . खाने की जगह कीड़े - मकौड़े दिखने लगे . और राजा को कुष्ठ रोग हो गया . उस वक्त बजौरा के पास झीडी गाँव में एक क्रिशन दास फयाहारी बाबा (वैष्णव बाबा जो सिर्फ फलों का सेवन करते थे ) रहते थे . राजा उनके पास गए . बाबा ने नरसिंह भगवान की मूर्ति राजा को दी जिसकी पूजा अर्चना से राजा का दोष आंशिक रूप से खत्म हो गया पर वो अब भी पूरी तरह ठीक न हो सके . फयाहारी बाबा ने राजा को कुष्ट रोग के पूर्ण निवारण हेतु अयोध्या से भगवान राम की मूर्ति ला कर उसकी पूजा करने को कहा . अयोध्या से इस मूर्ति को लाना कोई आसान काम ना था . इस कार्य के लिय फयाहारी बाबा ने अपने शिष्य दामोदर दास गौसाई जो सुकेत के राजा के दरबार में पुजारी थे, को अयोध्या से मूर्ति लाने के लिए भेजा . वो पूरे एक वर्ष तक अयोध्या में ' त्रेत नाथ ' मंदिर में पूजा करते रहे और धीरे -धीरे उन्होंने मूर्ति के बारे में सारी जानकारी हासिल कर ली . फिर एक दिन वो अयोध्या के त्रेत नाथ मंदिर से किसी तरह मूर्ति को चुराने में सफल हो गए .
. मूर्ति को सीधे जगतसुख ना ले जाकर पहले मनिकर्ण रखा गया क्योंकि अयोध्या में जब यह बात पता चली तो वहां के राजा ने अपने सैनिक इनके पीछे भेज दिए थे . उस समय मनिकर्ण पहुचने का रास्ता इतना आसान नहीं था .तो राजा ने वहीँ रघुनाथ की प्रतिष्ठा करके उसके चरणामृत धो-कर पीना शुरू किया .कुछ चार - पांच महीने मूर्ति मनिकर्ण में ही रखा गया . फिर जब अयोध्या के सैनिकों का डर खत्म हुआ तो उसे हरिपुर (जगतसुख के पास एक गाँव ) में लाकर उसकी प्रतिष्ठा की . राजा जगत सिंह धीरे-धीरे ठीक होने लगे थे . कुछ समय बाद उन्होंने अपना महल कुल्लू के सुल्तानपुर में ले आय. वो रघुनाथ जी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना पूरा राज पाठ रघुनाथ जी के नाम कर दिया और कहा कि मैं रघुनाथ जी के सेवक( छड़ीबरदार ) के रूप में काम करूँगा .इस घटना ने कुल्लू के अलग - अलग हिस्सों में काफी प्रभाव डाला . राजा ने कुल्लू के सभी कारदारों ( देवी - देवताओं का कम देखने वाले पुजारियों ) को विजय दशमी के दिन देवी - देवताओं के साथ कुल्लू आने का न्योता दिया ताकि इस त्यौहार का धूम - धाम से मनाया जाय .इस तरह कुल्लू में दशहरे का आयोजन शुरू हुआ . लगभग 250 - 300 देवी देवता इस मेले में आते हैं .पहले इन सभी देवी - देवताओं के रहने की व्यवस्था सुल्तानपुर में ही होती थी . बाद में रानी ने अपने हिस्से के खेत ( शाड ) यानी ढालपुर का मैदान इस मेले के आयोजन के लिय दानस्वरूप दे दिया .
पहले दिन यानी दशमी के दिन जब राजपरिवार की कुल देवी माता हिडिम्बा जब मनाली से कुल्लू रघुनाथ जी के मंदिर पहुँचती है उसके बाद ही रघुनाथ की मूर्ति को सुल्तानपुर से ढालपुर लाया जाता है . फिर इस मूर्ति को पहले से तैयार लकड़ी के रथ में रख जाता है . सभी देवी देवता रघुनाथ को चारों ओर से घेरे रखते हैं . फिर इस रथ को लोग लंबी रस्सी से खींचते है ओर इसे उस स्थान तक ले जाते है जहाँ रघुनाथ की मूर्ति को पूरे साथ दिन रखा जाता है . इन सात दिनों में वहां रामायण का पाठ होता है और रात को भजन -कीर्तन . देवाताओं के ढोल - नगाडों से पूरा कुल्लू देवमयी हो जाता है . राजा रघुनाथ का सेवक बनकर पूरे सात दिन वहीँ रहता है वहीँ ज़मीन पर सोता है.
अंतिम दिन रथ को खींच कर लंका - बेकर ( नदी के पास एक जगह का नाम )ले जाते हैं वहां अलग - अलग जानवरों की बलि दी जाती है .लोग कहते हैं कि इस जानवर को असुरों का प्रतीक माना जाता है . माता हिडिम्बा के नाम पर एक भैंस की बलि दी जाती है . जिसे महिषासुर का प्रतीकात्मक रुप माना जाता है . इस बलि के साथ ही माता हिडिम्बा बिना एक पल रुके मनाली की ओर प्रस्थान करती है और रथ को खींच कर पुन उसी स्थान पर लाया जाता है. रघुनाथ जी की मूर्ति को सुल्तानपुर ले जाया जाता है . लकड़ी के बने रथ को वहीँ ढालपुर मैदान में बने एक कमरे में रखा जाता है .अलग अलग जगह से आय देवी देवता अपने -अपने स्थान की ओर प्रस्थान करते हैं . इस तरह से साथ दिवसीय मेले का समापन होता है
(कुल्लू के अलग - अलग जगह से आए देवी -देवता रथ खींचने से पहले रघुनाथ के स्वागत में )
( रथ खींचने का नज़ारा )
( मेले के दौरान रघुनाथ की मूर्ति )
(दशहरे के दौरान देवी-देवता अपने अपने शिविरों में )

Saturday, March 3, 2012

गाँव की चिट्ठी

आज गाँव ने मेरे नाम चिट्ठी भेजी है
अपने बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की बात लिखी है
खेतों से लेकर पहाड तक की बात लिखी है
चिट्ठी पढते पढते मैं भी मनो गाँव पहुँच गई
जो गलियाँ शाम होते ही बच्चे हो जाते थे
अब वो शाम होते ही बूढ़े हो जाते हैं
जिन गलियों ने हमारा बचपन लिखा
आज वो खामोश है
अब ना तो बच्चे इन गलियों में खेलते हैं
ना ही घरों की औरतें वहां एकत्रित होते है
सब अपने अपने घर तक सीमित रह गए हैं
गाँव के आँगन में फूल तो बहुत खिलते हैं
पर उन की खुशबुओं का आनंद कोई नहीं लेता
उन फूलों की खुशबुओं को
चारदीवारी लगा कर कैद कर लिया गया है
खेतों में अब नहीं दीखते बैलों के जोड़े
सब मशीनी हो गया है
पर औरतें अब भी भोर होते ही
खेतों से मिलने जाते है
नदी अब भी उतने ही जोश से बहती है
पर मन ही मन डरी रहती है
कि ना जाने कब उसकी स्वछंदता खत्म हो जाए
सामने का पहाड़ बहुत उदास रहने लगा है
सुना है उसे छेड़ने की तैयारी पूरी हो चुकी है
अगर यह पहाड़ और नदी टूट गए
तो मेरी मृत्यु भी निश्चित है
इनके होने से मैं अब तक जिंदा हूँ
फिर तो मेरे यह खामोश गालियाँ
और लहलहाते खेत भी मर जायेंगे
और उसके साथ मर जायेंगी
तुम्हारी सारी यादें
क्या सिर्फ उन यादों को जिंदा रखने के लिए
तुम वापिस नहीं आ सकते ?
मैं स्तब्ध थी
खामोशी ने मुझे घेर लिया
जिसे शहर के शोर ने तोड़ लिया
मीटींग ,वर्कशॉप ,और बच्चों का भविष्य
इन सब के बीच दब सी गई
चिट्ठी से उठती हुई आवाजों का शोर

Tuesday, January 24, 2012

शून्य में पलती एक जिंदगी (अरुणा -एक एहसास )

जब एक बीज
खिलता है कली बनकर
वो कारण बनती है
एक कोमल सी मुस्कान का
कुछ यूं ही तुम भी खिली थी
अपने घर आँगन की बगिया में
मौसम के साथ अठखेलियाँ खेलती
जब तुम एक कली से
हरी भरी पेड बन गयी थी
तब तुम्हारे सपने भी
तुम्हारे मन के भीतर तक
एक मजबूत जड़ की तरह फ़ैल चुके थे
सपनों की उड़ान उडती तुम
होंसलों के पंख लगाकर
एक ऐसी दुनिया में पहुँच गयी
जहाँ वक्त के पास भी फुर्सत नहीं होती है
की वो पलों से साथ समय बिताए
जहाँ साँसे इतनी तेज चलती है
मानो कुछ ही पल में सब खतम हो जाए
अपनी उसी दुनिया में जीती तुम
मुस्कान बिखेरती तुम
ना जाने कितनों की सांसों को जीवन देती रही
पर उस एक पल में
थम सी गयी तुम
जब तेरे सपनो के पंख को
जंजीर से बांध लिया गया
तुम्हारी मुस्कान
नोच ली गई ,
तुम्हारे सपने ,
तुम्हारा जीवन,
एक बिंदु पे स्थिर हो गया
जहाँ सपने अभी भी है
पर पंख कुतर दिए गए हैं
जहाँ आशा , निराशा सब है
पर जीवन होकर भी नहीं है
शून्य में ताकती तुम
उस शून्य से अपना हिसाब मांग रही हो
एक नदी की तरह तुम निरंतर बह रही हो
मेरे लिए तुम एक चित्र लिपि हो
जिसे मैं पढ़ना चाहती हूँ
अपने एहसासों को
तेरे एहसास से मिला कर
तुम्हारे अंदर
एक जीवन सृजित करना चाहती हूँ
ताकि तुम्हारे चहरे की मुस्कान
मेरे शब्दों को जिंदा कर दें