Thursday, May 16, 2013

समीक्षा - गीत अतीत

                          दो – तीन दिन पहले जब फेसबुक पर सरसरी नज़र मार रही थी तो अचानक एक पोस्ट पर आ कर नज़रें रुक गई . यह पोस्ट श्री शमशेर फकीरू जी की थी जो मेरे गुरु जी भी रह चुके हैं . इस पोस्ट में उन्होंने लाहुली गीतों के संग्रह *गीत –अतीत * के विमोचन की तस्वीरें शेयर की हुई थी . मन में उत्सुकता ने घर कर लिया . अगले दिन अख़बारों में कुल्लू से सम्बंधित पेज पर इस सी०  –डी०  के विमोचन की खबरें थी . परसों शाम को जब गुरु जी रास्ते में मिले तो उनसे मैंने सी – डी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि कुछ सी – डी उन्होंने रखी है . गुरु जी से बातों –बातों में पता चला कि इस सी०  –डी०  को लोगों तक पहुँचाने की पहल लाहौल के वरिष्ठ नागरिकों एवं सेवानिवृत कर्मचारियों ने की है जिनमे ज्यादातर वो लोग थे जिनकी रूचि पहले से ही लोक -संगीत और कला में थी . इस सी –डी का  मुख्य उद्देश्य लाहुली पारंपरिक संगीत  और लोक गाथा (घुरे )को जिंदा रखने की कोशिश थी  . मैने झट से एम् पी थ्री सी०  -डी०  खरीद ली और घर पहुंचते ही अपने प्लयेर पर लोक गीतों को सुनना शुरू कर दिया . सी –डी का पहला ही घुरे (लोक गाथा का लयबद्ध रूप ) मधुर और कर्ण प्रिय है लगा  . पारंपरिक तरीके से घुरे को सुनने का अपना अलग मज़ा है जिसमे लय कभी भी नहीं छूटता है और साथ में बांसुरी की धुन का बेकग्राउंड पर  बजते रहना .हालाँकि घुरे का संबंध कौन सी लोक गाथा से है यह मुझे समझ नहीं आया .इसमें आवाजें श्री देवी सिंह कपूर जी गाँव ठोलोंग से , श्री हीरा लाल जी गाँव लिंडूर से , श्री श्याम लाल क्रोफा जी गाँव क्रोजिंग से , श्री शेर सिंह बोध गाँव गोहरमा से , देव कोड्फा जी गाँव कोठी से ने अपनी आवाजें दी है. संकलन श्री सतीश लोप्पा जी गाँव वारी का है . और बांसुरी श्री रामदेव कपूर गाँव ठोलोंग जी ने दिया है .रामदेव कपूर जी अपनी बांसुरी के लिए बधाई के पात्र है उसी तरफ देव कोद्फा जी ने भी संगीत में लाहुली स्वाद (टोन) को कायम रखा. काफी दिनों के बाद खुद को फिर से अपनी संस्कृति के नज़दीक पाया . मुझे आज भी बचपन के वो दिन याद है जब गाँव में शादी होती थी और हमारे बुज़ुर्ग खास कर स्वर्गीय श्री शिव दयाल किरपू जी बारात प्रस्थान से पहले घुरे गाते थे और अन्य लोग उनके शब्दों का अनुसरण करते थे . हालांकि समझ में बहूत कम ही आता था या आता ही नहीं थी . पर फिर भी सभी घुरे में सुनने में कर्णप्रिय होते थे ..

                                                  
                                           सच कहूँ तो मुझे *गीत –अतीत * संग्रह में से एक या दो सुने हुए घुरे के आलावा कुछ समझ नहीं आया . पर इसका मतलब यह नहीं कि यह घुरे सुनने लायक नहीं है . सारे के सारे घुरे बहूत ही अच्छे हैं . *गीत –अतीत * अपने आप में एक सम्पूर्ण संग्रह है .जिसका पूरा श्रेय इन कलाकरों व इनकी टीम को जाता है . आज जिस तरह हम लाहुली आधुनिकीकरण का शिकार हो चुके है या हो रहे हैं और जब हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं . ऐसे समय में एक ऐसे कदम को उठाना अतीत और वर्तमान के बीच सेतु बाँधने का  काम करने जैसा है .


अगर इस सी – डी के साथ घुरे का संकलन भी व्याख्या सहित छपाया जाता तो यह सोने पे सुहागे वाली बात होती . यह हम जैसे उन सभी लहौलियों के लिय अच्छा होता जो अपने संस्कृति और परम्पराओं से अनभिज्ञ हैं . वैसे तो सतीश लोप्पा जी अलग –अलग पत्रिकाओं में घुरे के बारे लिखते ही हैं पर उन्हें इस वक्त रिलेट किया जा सकता था . यह मेरे अपने विचार है .
कुल मिलाकर * भोंरा * ( वीडियो सी ० डी ० )  के  बहूत सालों बाद पहली बार कुछ कर्णप्रिय  सुनने को मिला  . उम्मीद है यह सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा . और हम अपनी परम्पराओं से जुड़े रहेंगे.

दो  घुरे यहाँ शेयर कर रही हूँ

शिव पार्वती

तल्जोन मीरू


Tuesday, March 5, 2013

आज़ाद पंछियों सी ख़्वाबों की दुनिया


कमरे में चारों तरफ रात फ़ैली है ,
ऐसी रात जिसमे तारों की ज़मीन नहीं है ,
और उसके एक कोने में मैं दुबका हुआ हूँ,
खुद की नज़रों में मैं खुद ओझल हूँ ,
फिर भी कमरे के एक कोने में जिंदा हूँ मैं
मेरी साँसे चल रही है ,
और आँखों में ख्वाबों के पंछी अब भी जिंदा हैं
यह पंछी मेरी साँसों को संजीवनी दे जाते हैं
इन पंछियों के सहारे
मैं उन पहाड़ों से मिल आता हूँ
जिनके सीने में बंदूक से निकली
हर गोली की कहानी दबी है ,
उन झीलों से मिल आता हूँ
जिसकी आँखों में खून की नदियाँ कैद है
उन फूलों को सूंघ आता हूँ
जो बारूद की गंध से अपनी खुश्बू भूल चुके है
उन शिकारों में एक मीठी धुन छोड़ आता हूँ
जो अपनी धुन भूल कर मशीनगनों के धुन पर नाचते हैं
सिंधु के पास जाकर उसके शोर को सुन कर आता हूँ ,
जो बाहर के शोर से खुद बहरी हो गयी हैं
उन स्कूलों में घूम आता हूँ
जिनके खाली कमरों में सन्नाटे का शोर गूँजता
है उन वीरान सड़कों में क़दमों के निशां छोड़ आता हूँ
जो ना कहीं आ रहे हैं ना कहीं जा रहे हैं
उन वादियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा आता हूँ
जिनकी हवाएं खौफ में जीती हैं ,
अहा ! कितना सुकून दायक है
इन ख़्वाबों के पंछियों का बेरोकटोक घूमना
इनका ना कोई रंग है ना ही कोई भेष है
ख्वाब बस ख्वाब होते है
इन्हें अपनी कोई पहचान साबित नहीं करनी पड़ती
इसीलिए अब तक इनकी दुनिया में उजाला है
वरना इनकी हकीकत भी मेरी हकीकत सी होती
और यह भी मेरी तरह किसी अँधेरे कोने में
अपनी अंतिम साँसे गिन रहे होते
ओर अपने हकीकत पर शोक मना रहे होते

Friday, February 8, 2013

आंसुओं के टेथिस से उगते पहाड़

एक लड़की रोज़ सुबह
निकलती है अपने घर से
आधे चाँद सा कटोरा लिय
आँखों में अरमानों का आकाश लिय
दिल में तितलियों से चंचलता लिए
खुले आसमान के आँगन में
सूरज की किरने ओढ़े
नंगे पैरों से ज़मीन को चुमते हुए
दौड़ती चीखती सड़कों पर
दुआओं की भीड़ -भाड़ वाले
खामोश मंदिरों / मस्जिदों में
उन इंसानों की तलाश में
जो उसके कटोरे को भर देंगे
उन तमाम दुआओं से
जिससे वो अपने सपनो को पूरा कर सके
पर हर शाम लौटती है वो अपने घर
थकी , बोझल और मुरझाई सी
वक्त के हाथों चूस दी गयी बच्ची
हर रोज़ अपनी चंचलता खोती जा रही है
जिस तरह असंख्य गाडियां
हर रोज़ सड़क को रौंद कर चली जाती है
और सड़क फिर भी जिंदा रहती है
खामोश पर बिलकुल सख्त
उसी तरह हर शाम उस बच्ची की आँखों में भी
एक पथराई सी खामोशी फ़ैल जाती है
अपने टूटे सपनो के शोक में
रोंदे गए उम्मीदों की आह से
हर बढते वक्त के साथ
उसके अन्दर इंसानियत की नमी खत्म खत्म हो रही है
उसके सपनो के फूल मुरझा रहे हैं
उसके अन्दर की मिट्टी सख्त हो रही है
उसके आंसुओं के टेथिस से
एक पहाड़ उसके अन्दर भी जन्म ले रहा है
सख्त और भयावाह