Tuesday, March 5, 2013

आज़ाद पंछियों सी ख़्वाबों की दुनिया


कमरे में चारों तरफ रात फ़ैली है ,
ऐसी रात जिसमे तारों की ज़मीन नहीं है ,
और उसके एक कोने में मैं दुबका हुआ हूँ,
खुद की नज़रों में मैं खुद ओझल हूँ ,
फिर भी कमरे के एक कोने में जिंदा हूँ मैं
मेरी साँसे चल रही है ,
और आँखों में ख्वाबों के पंछी अब भी जिंदा हैं
यह पंछी मेरी साँसों को संजीवनी दे जाते हैं
इन पंछियों के सहारे
मैं उन पहाड़ों से मिल आता हूँ
जिनके सीने में बंदूक से निकली
हर गोली की कहानी दबी है ,
उन झीलों से मिल आता हूँ
जिसकी आँखों में खून की नदियाँ कैद है
उन फूलों को सूंघ आता हूँ
जो बारूद की गंध से अपनी खुश्बू भूल चुके है
उन शिकारों में एक मीठी धुन छोड़ आता हूँ
जो अपनी धुन भूल कर मशीनगनों के धुन पर नाचते हैं
सिंधु के पास जाकर उसके शोर को सुन कर आता हूँ ,
जो बाहर के शोर से खुद बहरी हो गयी हैं
उन स्कूलों में घूम आता हूँ
जिनके खाली कमरों में सन्नाटे का शोर गूँजता
है उन वीरान सड़कों में क़दमों के निशां छोड़ आता हूँ
जो ना कहीं आ रहे हैं ना कहीं जा रहे हैं
उन वादियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा आता हूँ
जिनकी हवाएं खौफ में जीती हैं ,
अहा ! कितना सुकून दायक है
इन ख़्वाबों के पंछियों का बेरोकटोक घूमना
इनका ना कोई रंग है ना ही कोई भेष है
ख्वाब बस ख्वाब होते है
इन्हें अपनी कोई पहचान साबित नहीं करनी पड़ती
इसीलिए अब तक इनकी दुनिया में उजाला है
वरना इनकी हकीकत भी मेरी हकीकत सी होती
और यह भी मेरी तरह किसी अँधेरे कोने में
अपनी अंतिम साँसे गिन रहे होते
ओर अपने हकीकत पर शोक मना रहे होते

4 comments:

  1. "कल रात सरहद पार से कुछ लोग आए थे /
    पोटली मे मक्के के मोटे रोट लिए .....................ख्वाब था शायद
    हाँ ख्वाब ही था
    लेकिन मक्के की रोटी की गंध अभी कायम है "

    सुन्दर कविता . गाते रहो इन सपनो को !!

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  2. थोड़ी उदास सी फ़िर भी उम्मीदों भरी,
    यथार्थ और कल्पना के बीच,
    क्षितिज पर उड़ते पंछियों सी,
    जिन्हें हर शाम मैं देखता हूँ,
    अपनी छत पर टहलते हुए !
    उस शाम के रंग की,
    एक बहुत आत्मीय कविता
    --
    धन्यवाद सुनीता ।

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  3. आप दोनों की धन्यवाद ..

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