Thursday, November 15, 2012

घर

घर -1
याद आता है अक्सर
बचपन का वो घर
जहाँ हर चीज़ बिखरी होती
सब अस्त –व्यस्त
जहाँ कोई भी चीज़
सलीके से नहीं रखी जाती
फिर भी कितना सुकून मिलता था
उस घर के हर कोने में
घर -2
कितना मुस्कुराता है वो घर
जिसकी दीवारों में गूँजती है
बच्चों की किलकारियां
जिसके फर्श पर बिछी होती है
आपसी प्रेम का कालीन
और जिसकी छत पर
कोमल हाथ होता है बुजुर्गों का
घर -3
एक घर वो बना रहा है
ईंट, सीमेंट और पत्थर से
रोबदार और सख्त घर
एक घर में बना रही हूँ
अपनी भावनाओं का आटा गूँथ
रूप दे रही हूँ एक जीवन को
जिसकी नींव गहरी और पक्की है
घर -4
खँडहर है अब वो घर
जहाँ हर रात सजा करती थी
सितारों की महफ़िल
जहाँ दिन भर गूंजा करती थी
ठहाकों की आवाज़
अब वो घर अन्धकार में डूबा है
चाँद उसके दरवाज़े पर नहीं आता
उसके दिन खामोश हो गए है
रात और दिन कतरातें है
उससे मिलने के लिए भी
घर -5
घर आज घर नहीं रहे
वो बन गए है प्रतिष्ठा का प्रतीक
हर घर की गर्दन ऊंची है
कोई नहीं देखना चाहता नीचे
अपने आधार को
सब आसमान छूना चाहते है
अलग - अलग रंगों से पुते यह घर
अपने रंगीन होने पर इतराते हैं
इन घरों को नाचते हुए देख
दूर एक झोंपड़ी
मुस्कुराता है हर -पल
खुश है कि उसे नाचना नहीं आता
(16-11-2012)

Friday, November 2, 2012

बुतों में बुद्ध को ढूँढ रही हूँ

बुतों में बुद्ध को ढूँढ़ रही हूँ
कहीं पीतल का बुद्ध
कहीं सोने का बुद्ध
तो कहीं पत्थर का बुद्ध
हर जगह
एक पहाड़ की तरह
खामोश बुद्ध
और मैं ढूँढ रही हूँ
ऐसे बुद्ध को
जो मुझसे बातें करें
जो मेरी नादानी पर हँसे
जो मेरी गलतियों पर गुस्सा करें
जो मेरे नाटक का हिस्सा बने
जो मेरे साथ खेले
जो मेरे साथ रोए
पर हर जगह मिलता है मुझे
एक मौन बुद्ध
अलग - अलग परिभाषाओं में
परिभाषित बुद्ध
कहीं गुरु , तो कहीं भगवान ,
कहीं लोगों की आकांक्षाओं के बोझ तले
दबा हुआ बुद्ध
तो कहीं भौतिकता का प्रतीक बनता
जा रहा बुद्ध
कहाँ है वो शांत , सौम्य, मुस्कुराता बुद्ध
कहाँ है वो बुद्ध
जिसकी छवि सदियों से
इन पहाड़ों के ज़ेहन में है
कहाँ है वो बुद्ध
जिसे मैं बचपन से सुनती आ रही हूँ
चाँद मेरे सवालों पर हँसता है
हवाएं मुझे छूकर गुज़र जाती हैं
और दूर कहीं
पहाड़ की ख़ामोशी को तोडती
नदी का शोर सुनाई दे रहा है
और मैं बुतों में बुद्ध को ढूँढ रही हूँ