Wednesday, December 22, 2010

तुम कब आओगे मैत्रीये

तुम कब आओगे मैत्रिये
अब हिमालये भी टूट कर दरक रहा है
ज़मीन सागर में डूब रही है
जंगल में लोगों का बसेरा हो गया है
अब गाँव भी गाँव ना रहे
किसान फसलों कि जगह सोना उगा रहे हैं
चारों तरफ फ़ैली
अराजकता ,भ्रष्टाचार और व्यभिचार है
इंसान इंसान बनने को तैयार नहीं
दूसरे कि जान पर जता रहा अपना अधिकार है
रिश्ते बाजार में बिक रहे हैं
अपने झूटे दंभ में हर कोई मजबूर दिख रहा है
चाँद और सूरज भी रौशनी फ़ैलाने से कतरा रहे हैं
तुम कब आओगे मैत्रीय
शायद तुम्हे उस वक़्त का इंतज़ार है
जब करुणा ,शब्द और भाव
दोनों से गायब हो जाएगी
तब दोगे तुम नई परिभाषा
करुणा की .............


Tuesday, December 7, 2010

जीवन

पहला कदम ब्लॉग जगत में ,,,



मैं


जितनी बढती जा रही हूँ ,
उतनी ही छोटी होती जा रही हूँ
उलझ गयी हूँ
धागे के उस गोले जैसे
जिसे सुलझाते सुलझाते
ना जाने कितनी गांठें पड़ जाती हैं


मेरा गाँव



पहाड़ों के आँचल में बसा
सुंदर गाँव
पास बहती नदी /बहता नाला
उपजाऊ भूमि
आधुनिक किसान
आधुनिक खेती
बूढ़े विचार
बूढा गाँव
हर पल बदलते लोगों कि भीड़ में
अकेला बूढा होता मेरा गाँव



पहाड़


सुबह से शाम तक
मेरे साथ रहता है
एक पहाड़
पत्थर का बना कहते हैं लोग
साक्षी है मेरे हर सुख का दुख का
मैने इसे देखा है हँसते गाते हुए
मैने इसे देखा है उदास और रोते हुए कभी
शायद जीवन उस पत्थर में भी था