एक लड़की रोज़ सुबह
निकलती है अपने घर से
आधे चाँद सा कटोरा लिय
आँखों में अरमानों का आकाश लिय
दिल में तितलियों से चंचलता लिए
खुले आसमान के आँगन में
सूरज की किरने ओढ़े
नंगे पैरों से ज़मीन को चुमते हुए
दौड़ती चीखती सड़कों पर
दुआओं की भीड़ -भाड़ वाले
खामोश मंदिरों / मस्जिदों में
उन इंसानों की तलाश में
जो उसके कटोरे को भर देंगे
उन तमाम दुआओं से
जिससे वो अपने सपनो को पूरा कर सके
पर हर शाम लौटती है वो अपने घर
थकी , बोझल और मुरझाई सी
वक्त के हाथों चूस दी गयी बच्ची
हर रोज़ अपनी चंचलता खोती जा रही है
जिस तरह असंख्य गाडियां
हर रोज़ सड़क को रौंद कर चली जाती है
और सड़क फिर भी जिंदा रहती है
खामोश पर बिलकुल सख्त
उसी तरह हर शाम उस बच्ची की आँखों में भी
एक पथराई सी खामोशी फ़ैल जाती है
अपने टूटे सपनो के शोक में
रोंदे गए उम्मीदों की आह से
हर बढते वक्त के साथ
उसके अन्दर इंसानियत की नमी खत्म खत्म हो रही है
उसके सपनो के फूल मुरझा रहे हैं
उसके अन्दर की मिट्टी सख्त हो रही है
उसके आंसुओं के टेथिस से
एक पहाड़ उसके अन्दर भी जन्म ले रहा है
सख्त और भयावाह
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