Saturday, March 3, 2012

गाँव की चिट्ठी

आज गाँव ने मेरे नाम चिट्ठी भेजी है
अपने बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की बात लिखी है
खेतों से लेकर पहाड तक की बात लिखी है
चिट्ठी पढते पढते मैं भी मनो गाँव पहुँच गई
जो गलियाँ शाम होते ही बच्चे हो जाते थे
अब वो शाम होते ही बूढ़े हो जाते हैं
जिन गलियों ने हमारा बचपन लिखा
आज वो खामोश है
अब ना तो बच्चे इन गलियों में खेलते हैं
ना ही घरों की औरतें वहां एकत्रित होते है
सब अपने अपने घर तक सीमित रह गए हैं
गाँव के आँगन में फूल तो बहुत खिलते हैं
पर उन की खुशबुओं का आनंद कोई नहीं लेता
उन फूलों की खुशबुओं को
चारदीवारी लगा कर कैद कर लिया गया है
खेतों में अब नहीं दीखते बैलों के जोड़े
सब मशीनी हो गया है
पर औरतें अब भी भोर होते ही
खेतों से मिलने जाते है
नदी अब भी उतने ही जोश से बहती है
पर मन ही मन डरी रहती है
कि ना जाने कब उसकी स्वछंदता खत्म हो जाए
सामने का पहाड़ बहुत उदास रहने लगा है
सुना है उसे छेड़ने की तैयारी पूरी हो चुकी है
अगर यह पहाड़ और नदी टूट गए
तो मेरी मृत्यु भी निश्चित है
इनके होने से मैं अब तक जिंदा हूँ
फिर तो मेरे यह खामोश गालियाँ
और लहलहाते खेत भी मर जायेंगे
और उसके साथ मर जायेंगी
तुम्हारी सारी यादें
क्या सिर्फ उन यादों को जिंदा रखने के लिए
तुम वापिस नहीं आ सकते ?
मैं स्तब्ध थी
खामोशी ने मुझे घेर लिया
जिसे शहर के शोर ने तोड़ लिया
मीटींग ,वर्कशॉप ,और बच्चों का भविष्य
इन सब के बीच दब सी गई
चिट्ठी से उठती हुई आवाजों का शोर

No comments:

Post a Comment