Tuesday, October 30, 2012
कुल्लू का दशहरा
(कुल्लू दशहरे को देखते हुए लगभग १५ साल हो गए . पर इसके पीछे के इतिहास के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी . इस साल इधर -उधर से कुछ जानकारी हासिल करके लिख रही हूँ .मैने हर संभव कोशिश की है कि सभी पहलुओं पर लिखूं .फिर भी शायद इसमें बहुत से कमियां होंगी .अगर कुछ छूट गया हो तो आप लोग इसमें जोड़ सकते हैं )
आज दशमी है . नवरात्रे के एक दिन बाद का दिन पूरे भारत में विजय दशमी के रूप में माना जाता है.जिसमे समस्त भारत में रावण के पुतले को जलाया जाता है. कुल्लू का दशहरा कई मायनों में देश के अलग हिस्से में मनाय जाने दशहरे से अलग है .जब देश के अन्य हिस्सों में रावण वध के साथ दशहरे का समापन होता है . कुल्लू में सात दिवसीय दशहरे का आरम्भ होता है .कुल्लू में दशहरा मनाने का सिलसिला राजा जगत सिंह के समय से शुरू हुआ . जिन्होंने कुल्लू में १६३७ से १६७२ तक शासन किया .कहा जाता है कि एक बार राजा जगत सिंह अपने सैनिकों के साथ मनिकर्ण जा रहे थे . जहाँ रास्ते में एक गाँव टिपरी आता है . वहां दो ब्राह्मणों का आपस में वैर था . एक ब्राह्मण ने राजा के साथ दूसरे ब्राह्मण की शिकायत की कि उसके पास हीरे - जवाहरात हैं . राजा उस ब्राह्मण (दुर्गा दत्त) को कहा कि जब मैं मनिकर्ण से वापिस आऊंगा तो वो हीरे - जवाहरात मेरे सैनिकों को दे देना ताकि उसे राजकोष में जमा कर लिया जाय .जब राजा के सैनिकों ने उस ब्राह्मण को बहुत तंग किया तो उसने खुद को और अपने परिवार को अपने कमरे में बंद कर लिया और आग लगा दी और अपने शरीर के एक- एक अंग को काट कर उस आग के हवाले करता रहा.
उस समय राजा का महल जगत सुख में हुआ करता था . जैसे ही वो घर पहुंचा और पीने के लिए पानी माँगा तो उसे खून ही दिखाई देने लगा . खाने की जगह कीड़े - मकौड़े दिखने लगे . और राजा को कुष्ठ रोग हो गया . उस वक्त बजौरा के पास झीडी गाँव में एक क्रिशन दास फयाहारी बाबा (वैष्णव बाबा जो सिर्फ फलों का सेवन करते थे ) रहते थे . राजा उनके पास गए . बाबा ने नरसिंह भगवान की मूर्ति राजा को दी जिसकी पूजा अर्चना से राजा का दोष आंशिक रूप से खत्म हो गया पर वो अब भी पूरी तरह ठीक न हो सके . फयाहारी बाबा ने राजा को कुष्ट रोग के पूर्ण निवारण हेतु अयोध्या से भगवान राम की मूर्ति ला कर उसकी पूजा करने को कहा . अयोध्या से इस मूर्ति को लाना कोई आसान काम ना था . इस कार्य के लिय फयाहारी बाबा ने अपने शिष्य दामोदर दास गौसाई जो सुकेत के राजा के दरबार में पुजारी थे, को अयोध्या से मूर्ति लाने के लिए भेजा . वो पूरे एक वर्ष तक अयोध्या में ' त्रेत नाथ ' मंदिर में पूजा करते रहे और धीरे -धीरे उन्होंने मूर्ति के बारे में सारी जानकारी हासिल कर ली . फिर एक दिन वो अयोध्या के त्रेत नाथ मंदिर से किसी तरह मूर्ति को चुराने में सफल हो गए .
.
मूर्ति को सीधे जगतसुख ना ले जाकर पहले मनिकर्ण रखा गया क्योंकि अयोध्या में जब यह बात पता चली तो वहां के राजा ने अपने सैनिक इनके पीछे भेज दिए थे . उस समय मनिकर्ण पहुचने का रास्ता इतना आसान नहीं था .तो राजा ने वहीँ रघुनाथ की प्रतिष्ठा करके उसके चरणामृत धो-कर पीना शुरू किया .कुछ चार - पांच महीने मूर्ति मनिकर्ण में ही रखा गया . फिर जब अयोध्या के सैनिकों का डर खत्म हुआ तो उसे हरिपुर (जगतसुख के पास एक गाँव ) में लाकर उसकी प्रतिष्ठा की . राजा जगत सिंह धीरे-धीरे ठीक होने लगे थे . कुछ समय बाद उन्होंने अपना महल कुल्लू के सुल्तानपुर में ले आय. वो रघुनाथ जी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना पूरा राज पाठ रघुनाथ जी के नाम कर दिया और कहा कि मैं रघुनाथ जी के सेवक( छड़ीबरदार ) के रूप में काम करूँगा .इस घटना ने कुल्लू के अलग - अलग हिस्सों में काफी प्रभाव डाला . राजा ने कुल्लू के सभी कारदारों ( देवी - देवताओं का कम देखने वाले पुजारियों ) को विजय दशमी के दिन देवी - देवताओं के साथ कुल्लू आने का न्योता दिया ताकि इस त्यौहार का धूम - धाम से मनाया जाय .इस तरह कुल्लू में दशहरे का आयोजन शुरू हुआ . लगभग 250 - 300 देवी देवता इस मेले में आते हैं .पहले इन सभी देवी - देवताओं के रहने की व्यवस्था सुल्तानपुर में ही होती थी . बाद में रानी ने अपने हिस्से के खेत ( शाड ) यानी ढालपुर का मैदान इस मेले के आयोजन के लिय दानस्वरूप दे दिया .
पहले दिन यानी दशमी के दिन जब राजपरिवार की कुल देवी माता हिडिम्बा जब मनाली से कुल्लू रघुनाथ जी के मंदिर पहुँचती है उसके बाद ही रघुनाथ की मूर्ति को सुल्तानपुर से ढालपुर लाया जाता है . फिर इस मूर्ति को पहले से तैयार लकड़ी के रथ में रख जाता है . सभी देवी देवता रघुनाथ को चारों ओर से घेरे रखते हैं . फिर इस रथ को लोग लंबी रस्सी से खींचते है ओर इसे उस स्थान तक ले जाते है जहाँ रघुनाथ की मूर्ति को पूरे साथ दिन रखा जाता है . इन सात दिनों में वहां रामायण का पाठ होता है और रात को भजन -कीर्तन . देवाताओं के ढोल - नगाडों से पूरा कुल्लू देवमयी हो जाता है . राजा रघुनाथ का सेवक बनकर पूरे सात दिन वहीँ रहता है वहीँ ज़मीन पर सोता है.
अंतिम दिन रथ को खींच कर लंका - बेकर ( नदी के पास एक जगह का नाम )ले जाते हैं वहां अलग - अलग जानवरों की बलि दी जाती है .लोग कहते हैं कि इस जानवर को असुरों का प्रतीक माना जाता है . माता हिडिम्बा के नाम पर एक भैंस की बलि दी जाती है . जिसे महिषासुर का प्रतीकात्मक रुप माना जाता है . इस बलि के साथ ही माता हिडिम्बा बिना एक पल रुके मनाली की ओर प्रस्थान करती है और रथ को खींच कर पुन उसी स्थान पर लाया जाता है. रघुनाथ जी की मूर्ति को सुल्तानपुर ले जाया जाता है . लकड़ी के बने रथ को वहीँ ढालपुर मैदान में बने एक कमरे में रखा जाता है .अलग अलग जगह से आय देवी देवता अपने -अपने स्थान की ओर प्रस्थान करते हैं . इस तरह से साथ दिवसीय मेले का समापन होता है
(कुल्लू के अलग - अलग जगह से आए देवी -देवता रथ खींचने से पहले रघुनाथ के स्वागत में )
( रथ खींचने का नज़ारा )
( मेले के दौरान रघुनाथ की मूर्ति )
(दशहरे के दौरान देवी-देवता अपने अपने शिविरों में )
Labels:
संस्कृति - परम्परा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
Sunder varnan Sunita! Sainkro baar iss kahani ko sun'ney ke baad phir phir sun'ney ki ichchha rahti hai! Aik manyta yeh bhi hai ki, Raghunathji ki murti ko Sultanpur ke rastey Jagatsukkh le jaya ja raha tha to Murti Bhari ho gai aur uss sthan se aagay n gai. (Aisi bhi manyta hai ki sabhi Devi devtaon ke rath unhi ki ichchha se chltey hain, utha kar le jane walo'n ka in par koi bas nahi hota!) To iss karan Raja ne apna niwas Sultanpur laney ka nirnay liya.Tab isse Raghunathpur bhi kaha janr lga!
ReplyDelete