Saturday, September 27, 2014

चंद्रताल की यात्रा





            यात्राएं जीवन की आवश्यकता है | हम अनंत काल से यात्राएं ही करते आये हैं |यात्राएं हमें जीवन के ओर करीब ले जाती हैं | एक ऐसी ही यात्रा पर हमें निकलना था| चंद्रताल जाने की इच्छा मेरे मन में कई वर्षों से थी | हम हर साल जाने की योजनायें बनाते और वो किसी सरकारी योजना की तरह फ़ैल हो जाती | कुछ मिलन कुछ यात्राएं हमारे बस में नहीं होती | कुछ लम्हों के लिए ,कुछ अनछुए पलों के लिए वक्त ने पहले से ही
 घोंसला बना लिया होता है | ऐसे ही किसी एक दिन मैं अपना बैग पैक कर रही थी |  अगले दिन सुबह 7 बजे के करीब मैं अपने ग्रुप के साथ कुल्लू से मनाली जा रही थी | पूनम ( मेरी दोस्त ) जो पेशे से लेक्चरर हैं  , विशाल भैया ( पूनम के कज़न) जो दूर संचार विभाग में एकाउंटेंट की पोस्ट पर हैं   और उनकी पत्नी  सुषमा  जो केन्द्रीय विद्यालय में लेक्चरर हैं |हम सब  विशाल भैया की गाडी में बैठ कर हँसते –हंसाते मनाली के प्रीणी गाँव की ओर जा रहे थे जहाँ से हमें विकास भैया और उनकी पत्नी टशी की सोकोर्पियो से आगे जाना था | विकास भैया और तशी का अपना बिसनेस है जो एक ट्रैकिंग ग्रुप चलाते हैं | यह हामटा में भी अपनी दूकान चलाते हैं | सुबह के करीब नौ बजे हम प्रीणी गाँव से अपनी आगे की यात्रा पर निकले | पहला पड़ाव कोठी रहा जहाँ हमने नाश्ता किया | विकास भैया और उनकी पत्नी से पहली बार मिल रही थी पर लग नहीं रहा था कि हम पहली बार मिले | नाश्ता करने के बाद सबने एक ग्रुप फोटो लिया और फिर अपनी यात्रा शुरू की | रोहतांग पहुँच कर हम सब फोटोग्राफी के लिए  रुक गए | कितना अजीब सा लगता है ना | इस रोहतांग से मैं ना जाने पहले भी कितनी बार गुज़री | जब पहली बार जमा दो पास कर के कुल्लू आयी थी तब से इसे देख रही हूँ महसूसने की कोशिश कर रही हूँ | उसमे भी उतने ही बदलाव आये हैं जितने मुझमे | रोहतांग पार जाते हुए ऐसा लग रहा था कि हम अपने घर जा रहे हैं | गाडी में एक गाना खूब बज रहा था “ बदतमीज़ दिल माने ना”  और हम सब भी साथ –साथ इस गाने को जोर जोर से इन पहाड़ों को सूना रहे थे | पहली बार ग्राम्फु से स्पीती वाले रास्ते पर जा रही थी | एक नयी अनुभूति लिए नए आकाश की तलाश में | ऐसा लग रहा था पूरी प्रकृति को अपने अन्दर समा लूँ और निकल जाऊं उसके के साथ उस यात्रा पर जहाँ हम दो ही हो | कि मैं गाऊं और वो पहाड़ सुनें यह झरने नदी मेरे ताल के साथ ताल मिलायेऔर यह पेड़ पौधे और झाड़ियाँ मुझे जीने का सामान देते रहे | पर कुछ ख्वाब – ख्वाब ही रहते हैं | उनका हकीकत से कोई रिश्ता नहीं होता |
ग्राम्फु से थोडा सा आगे स्पिति की तरफ



ग्राम्फु से करीब चार या पांच किलोमीटर चलने के बाद हमें गदीयाँ मिलने शुरू हो गए | गद्दियाँ अप्रैल  ,मई के महीने में हिमाचल के निचले इलाकों जैसे कांगडा और चंबा से हिमालय की और आते हैं और अगस्त सितम्बर तक वापिर चले जाते हैं | उनका सफ़र वापसी का था |




इनकी यात्रा सबसे कठिन होती है ( गद्दियों के भेड -बकरी )
छतडू


ग्राम्फु से करीब 20 किलोमीटर दूर हमारा दूसरा पड़ाव आया “छतडू”  सरकार का एक बोर्ड बता रहा था कि वहां कुल 120 व्यक्ति रहते हैं | यहाँ हिमाचल प्रदेश लोक निर्माण विभाग का एक रेस्ट हाउस भी है | छत्डू से हमारी यात्रा फिर शुरू हो गयी |बातल के लिए | रास्ते अजनबी पर जाने पहचाने से थे | रास्ते में गद्दियों के कई झुण्ड भी हमें मिले |  विकास भैया ने हमें सुम्ली ट्रेकिंग रूट और शिग्री ग्लेशियर के बारे में बताया  वो इस रूट से कई बार अपनी ट्रेकिंग यात्रा कर चुके हैं | उनके पहाड़ के हर रूप के बारे में पता है “
country roads take me home “  यह गाना कई बार उनके मुंह से सुन रही थी | उन्होंने इसी रास्ते पर हमें एक फूल दिखाया  और बताया कि यह switzerleand का राष्ट्रीय फूल है | रास्ता पूरा का पूरा कच्चा रास्ता है | विशवास नहीं होता कि यह रास्ता स्पिति के लोगों को बाकी दुनिया से जोड़ने वाला रास्ता है | ऐसा लगता है जैसे जब से सड़क बनी है इसके रखरखाव पर कोई काम नहीं हुआ है | chatduu से लगभग चार या पांच  घंटे के सफ़र के बाद हम लोग बातल पहुंचे  बातल एक छोटा सा स्थान है जहाँ कुछ दो तीन ढाबे और एक हिमाचल प्रदेश लोक निर्माण विभाग का एक रेस्ट हाउस भी है | यहाँ हम ने वीरता पुरूस्कार से सम्मानित हिशे और दोरजे के ढाबे में चाय और बिस्कुट खाई और फिर अपने मंजिल की और बढे |


हिशे जी , विशाल भैया, दोरजे जी ,, बातल में
चंद्रताल से कुछ दूर पहले
Private Tents 

शाम को चंद्रताल  कुछ यूँ मिला  



यहाँ से चंद्रताल  बस 14 किलोमीटर दूर था | कुछ दो या तीन किलोमीटर चलने के बाद कुंजाम  दर्रा  और चंद्रताल के रास्ते अलग हुए | बस कुछ ही पलों में हम बेस कैंप में थे जहाँ कुछ टेंट लगे हुए थे |
गाड़ियां बेस केम्प या यूं कहैं कि जहाँ निजी टेंट लगे हैं उससे थोड़ी ऊपर तक जाती है | जहाँ गाड़ियां पार्क होती हैं उस जगह से आगे टेंट लगाने की मनाही है | जबकि हमारा इरादा बिलकुकल झील के पास टेंट लगाने की थी |  पर्यटन विभाग वालों ने यहाँ एक चौकीदार रखा है जो लोगों को पार्किंग से आगे टेंट लगाने से रोकता है | हम लोग अब चंदर ताल से करीब 500  मीटर की ही दूरी पर थे | यहाँ ठण्ड काफी थी .. सब ने टोपियाँ मफलर और और जेकेट्स लगा लिए | और चंदर ताल से मिलने चल पड़े | चंदर ताल को पहली बार देखने का जोश कुछ ऐसे था जैसे एक छोटे बच्चे के मन में बरसों से दबी इच्छा का पूरा होना | और अगले ही पल चंदर ताल हमारे सामने था | कुछ पल के लिए लगा कि इस झील से मेरा नाता पुराना है | और मैं एक प्रेमी की तरह उसे अपने आगोश में बसा कर अपने रूह की अंतिम तलहटी पर बसाना चाहती थी | ऐसा लग रहा था कि यहाँ कोई ना हो बस मैं, झील और हमारे  ह्रदय में  बजने वाला संगीत हो | चन्द्र ताल रूबरू होने के बाद अब हमें टेंट के लिए जगह ढूँढनी थी उस दिन सर्कार ने जिस चौकीदार को निगरानी के लिए रखा था उस दिन वो नहीं था तो हमने झील से थोडा ऊपर अपना टेंट लगाया | टेंट लग चुका था | ठण्ड काफी बढ़ गयी थी हम सभी अपने अपने स्लीपिंग बेग में घुस गए | विकास भैया , और विशाल भैया ने पहले चाय और फिर डिनर करवाया | वहीँ पास ही गद्दियों का एक “ किचन “ भी था | हम अपने साथ खाना बनाने का सारा समान ले गए थे  जिसका पूरा इंतजाम विशाल भैया ने किया था |  सुबह पांच बजे के करीब मेरी नींद खुल गयी | सब सोये हुए थे .. तो मैं भी चुपचाप बैठी रही इतने में सुषमा भी जाग गयी फिर हम दोनों  घूमने निकल पढ़े .. चन्द्र ताल के पीछे की पहाडी की तरफ जहाँ से एक ओर सुन्दर सी जगह दिखती है जिसका नाम समुन्द्र ताल था .. चंद्रताल के पीछे दाहिनी तरफ को दो तीन छोटी छोटी और भी झीलें हैं | इतने में पूनम और tashi भाभी भी आ गए  हम सब बिना मुंह धोये बस घूम रहे थे गा रहे थे और खूब मस्ती कर रहे थे  जब सूरज की पहली किरणों ने चंद्रताल को छुआ उस झील की सुन्दरता और निखर गयी मानो युगों बाद प्रेमी के आने की खुशी में प्रेमिका  हरी भरी हो गयी हो | मैने एक -एक पल को अपने भीतर कैद किया ताकि कभी उन पलों के साथ दूर गगन में उड़ सकूँ जी सकूँ खुद को महसूस कर सकूँ अपने जिंदा होने का यकीं कर सकूँ |  चंद्रताल के साथ बैठ कर हमने ढेरों हिंदी फिल्मों के गाने गायें और हाथ मुंह धोकर अपने टेंट की ओर चल पड़े | विशाल भैया और विकास भैया ने हमारा नाश्ता तैयार रखा हुआ था |  कुछ देर बाद tashi भाभी ने चटपटा सा पुलाव भी बनाया | हमने थोड़ी देर sun bath  kका आनंद लिया और फिर दोपहर बाद  अपने अपने पिंजरों की ओर फिर से वापिस चल पड़े ..
  बेशक चंद्रताल पहुँचने का रास्ता बहुत खराब था / है | सरकार ने इस इलाके में शायद सड़कों की मरम्मत पर उतना ध्यान नहीं दिया पर पहली बार सरकार की इस अव्यवस्था पर खुश हुई हूँ क्योंकि सब कुछ अच्छा होता तो चंद्रताल वैसा ना होता जैसे आज है || खुश हूँ कि मेरे जीवन के सबसे सुन्दर यात्राओं में एक यात्रा थी यह जो मेरे प्यारे दोस्तों के कारण ही संभव हो पाया |

 नोट :- सभी लोग जो इस संस्मरण को पढेंगे उनसे मेरा अनुरोध रहेगा कि हम चाहे दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी प्राकृतिक जगह पर जाए .. उस जगह की सफाई का अवश्य ख्याल रखें | क्योंकि प्रकृति  की सुन्दरता ही हमारे सुन्दर जीवन का आधार हैं

विशाल सुषमा 



विकास टशी
हमारा टेंट
                                      

Thursday, May 16, 2013

समीक्षा - गीत अतीत

                          दो – तीन दिन पहले जब फेसबुक पर सरसरी नज़र मार रही थी तो अचानक एक पोस्ट पर आ कर नज़रें रुक गई . यह पोस्ट श्री शमशेर फकीरू जी की थी जो मेरे गुरु जी भी रह चुके हैं . इस पोस्ट में उन्होंने लाहुली गीतों के संग्रह *गीत –अतीत * के विमोचन की तस्वीरें शेयर की हुई थी . मन में उत्सुकता ने घर कर लिया . अगले दिन अख़बारों में कुल्लू से सम्बंधित पेज पर इस सी०  –डी०  के विमोचन की खबरें थी . परसों शाम को जब गुरु जी रास्ते में मिले तो उनसे मैंने सी – डी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि कुछ सी – डी उन्होंने रखी है . गुरु जी से बातों –बातों में पता चला कि इस सी०  –डी०  को लोगों तक पहुँचाने की पहल लाहौल के वरिष्ठ नागरिकों एवं सेवानिवृत कर्मचारियों ने की है जिनमे ज्यादातर वो लोग थे जिनकी रूचि पहले से ही लोक -संगीत और कला में थी . इस सी –डी का  मुख्य उद्देश्य लाहुली पारंपरिक संगीत  और लोक गाथा (घुरे )को जिंदा रखने की कोशिश थी  . मैने झट से एम् पी थ्री सी०  -डी०  खरीद ली और घर पहुंचते ही अपने प्लयेर पर लोक गीतों को सुनना शुरू कर दिया . सी –डी का पहला ही घुरे (लोक गाथा का लयबद्ध रूप ) मधुर और कर्ण प्रिय है लगा  . पारंपरिक तरीके से घुरे को सुनने का अपना अलग मज़ा है जिसमे लय कभी भी नहीं छूटता है और साथ में बांसुरी की धुन का बेकग्राउंड पर  बजते रहना .हालाँकि घुरे का संबंध कौन सी लोक गाथा से है यह मुझे समझ नहीं आया .इसमें आवाजें श्री देवी सिंह कपूर जी गाँव ठोलोंग से , श्री हीरा लाल जी गाँव लिंडूर से , श्री श्याम लाल क्रोफा जी गाँव क्रोजिंग से , श्री शेर सिंह बोध गाँव गोहरमा से , देव कोड्फा जी गाँव कोठी से ने अपनी आवाजें दी है. संकलन श्री सतीश लोप्पा जी गाँव वारी का है . और बांसुरी श्री रामदेव कपूर गाँव ठोलोंग जी ने दिया है .रामदेव कपूर जी अपनी बांसुरी के लिए बधाई के पात्र है उसी तरफ देव कोद्फा जी ने भी संगीत में लाहुली स्वाद (टोन) को कायम रखा. काफी दिनों के बाद खुद को फिर से अपनी संस्कृति के नज़दीक पाया . मुझे आज भी बचपन के वो दिन याद है जब गाँव में शादी होती थी और हमारे बुज़ुर्ग खास कर स्वर्गीय श्री शिव दयाल किरपू जी बारात प्रस्थान से पहले घुरे गाते थे और अन्य लोग उनके शब्दों का अनुसरण करते थे . हालांकि समझ में बहूत कम ही आता था या आता ही नहीं थी . पर फिर भी सभी घुरे में सुनने में कर्णप्रिय होते थे ..

                                                  
                                           सच कहूँ तो मुझे *गीत –अतीत * संग्रह में से एक या दो सुने हुए घुरे के आलावा कुछ समझ नहीं आया . पर इसका मतलब यह नहीं कि यह घुरे सुनने लायक नहीं है . सारे के सारे घुरे बहूत ही अच्छे हैं . *गीत –अतीत * अपने आप में एक सम्पूर्ण संग्रह है .जिसका पूरा श्रेय इन कलाकरों व इनकी टीम को जाता है . आज जिस तरह हम लाहुली आधुनिकीकरण का शिकार हो चुके है या हो रहे हैं और जब हम अपनी परम्पराओं को भूलते जा रहे हैं . ऐसे समय में एक ऐसे कदम को उठाना अतीत और वर्तमान के बीच सेतु बाँधने का  काम करने जैसा है .


अगर इस सी – डी के साथ घुरे का संकलन भी व्याख्या सहित छपाया जाता तो यह सोने पे सुहागे वाली बात होती . यह हम जैसे उन सभी लहौलियों के लिय अच्छा होता जो अपने संस्कृति और परम्पराओं से अनभिज्ञ हैं . वैसे तो सतीश लोप्पा जी अलग –अलग पत्रिकाओं में घुरे के बारे लिखते ही हैं पर उन्हें इस वक्त रिलेट किया जा सकता था . यह मेरे अपने विचार है .
कुल मिलाकर * भोंरा * ( वीडियो सी ० डी ० )  के  बहूत सालों बाद पहली बार कुछ कर्णप्रिय  सुनने को मिला  . उम्मीद है यह सिलसिला यूँ ही चलता रहेगा . और हम अपनी परम्पराओं से जुड़े रहेंगे.

दो  घुरे यहाँ शेयर कर रही हूँ

शिव पार्वती

तल्जोन मीरू


Tuesday, March 5, 2013

आज़ाद पंछियों सी ख़्वाबों की दुनिया


कमरे में चारों तरफ रात फ़ैली है ,
ऐसी रात जिसमे तारों की ज़मीन नहीं है ,
और उसके एक कोने में मैं दुबका हुआ हूँ,
खुद की नज़रों में मैं खुद ओझल हूँ ,
फिर भी कमरे के एक कोने में जिंदा हूँ मैं
मेरी साँसे चल रही है ,
और आँखों में ख्वाबों के पंछी अब भी जिंदा हैं
यह पंछी मेरी साँसों को संजीवनी दे जाते हैं
इन पंछियों के सहारे
मैं उन पहाड़ों से मिल आता हूँ
जिनके सीने में बंदूक से निकली
हर गोली की कहानी दबी है ,
उन झीलों से मिल आता हूँ
जिसकी आँखों में खून की नदियाँ कैद है
उन फूलों को सूंघ आता हूँ
जो बारूद की गंध से अपनी खुश्बू भूल चुके है
उन शिकारों में एक मीठी धुन छोड़ आता हूँ
जो अपनी धुन भूल कर मशीनगनों के धुन पर नाचते हैं
सिंधु के पास जाकर उसके शोर को सुन कर आता हूँ ,
जो बाहर के शोर से खुद बहरी हो गयी हैं
उन स्कूलों में घूम आता हूँ
जिनके खाली कमरों में सन्नाटे का शोर गूँजता
है उन वीरान सड़कों में क़दमों के निशां छोड़ आता हूँ
जो ना कहीं आ रहे हैं ना कहीं जा रहे हैं
उन वादियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा आता हूँ
जिनकी हवाएं खौफ में जीती हैं ,
अहा ! कितना सुकून दायक है
इन ख़्वाबों के पंछियों का बेरोकटोक घूमना
इनका ना कोई रंग है ना ही कोई भेष है
ख्वाब बस ख्वाब होते है
इन्हें अपनी कोई पहचान साबित नहीं करनी पड़ती
इसीलिए अब तक इनकी दुनिया में उजाला है
वरना इनकी हकीकत भी मेरी हकीकत सी होती
और यह भी मेरी तरह किसी अँधेरे कोने में
अपनी अंतिम साँसे गिन रहे होते
ओर अपने हकीकत पर शोक मना रहे होते

Friday, February 8, 2013

आंसुओं के टेथिस से उगते पहाड़

एक लड़की रोज़ सुबह
निकलती है अपने घर से
आधे चाँद सा कटोरा लिय
आँखों में अरमानों का आकाश लिय
दिल में तितलियों से चंचलता लिए
खुले आसमान के आँगन में
सूरज की किरने ओढ़े
नंगे पैरों से ज़मीन को चुमते हुए
दौड़ती चीखती सड़कों पर
दुआओं की भीड़ -भाड़ वाले
खामोश मंदिरों / मस्जिदों में
उन इंसानों की तलाश में
जो उसके कटोरे को भर देंगे
उन तमाम दुआओं से
जिससे वो अपने सपनो को पूरा कर सके
पर हर शाम लौटती है वो अपने घर
थकी , बोझल और मुरझाई सी
वक्त के हाथों चूस दी गयी बच्ची
हर रोज़ अपनी चंचलता खोती जा रही है
जिस तरह असंख्य गाडियां
हर रोज़ सड़क को रौंद कर चली जाती है
और सड़क फिर भी जिंदा रहती है
खामोश पर बिलकुल सख्त
उसी तरह हर शाम उस बच्ची की आँखों में भी
एक पथराई सी खामोशी फ़ैल जाती है
अपने टूटे सपनो के शोक में
रोंदे गए उम्मीदों की आह से
हर बढते वक्त के साथ
उसके अन्दर इंसानियत की नमी खत्म खत्म हो रही है
उसके सपनो के फूल मुरझा रहे हैं
उसके अन्दर की मिट्टी सख्त हो रही है
उसके आंसुओं के टेथिस से
एक पहाड़ उसके अन्दर भी जन्म ले रहा है
सख्त और भयावाह

Sunday, December 2, 2012

नाचता पहाड़

जब किसान अपने बैलों के साथ
अपनी मिट्टी के गुण गाते हुए
खेतों में हल चलाता है
सामने का काला पहाड़
भाव -विभोर हो खुशी से चहक उठता है
जब औरतें भरी दोपहरी में
खेतों में *सुरपी* करते हुए
या फसलों को सींचते हुए
*घुरे* ,*सुगली* गाते हुए
हल्की- हल्की सीटी बजाते हैं
उनके *घुरे * और *सुगली * से लय मिलाते हुए
सामने का काला पहाड़ गुनगुना उठता है
जब गाँव की गलियों में
बच्चे सुबह से शाम
*डू -म - डू* या *थिप्पी * खेलते हुए
*अका* * माग* कहते हुए चीखते हैं
उनकी हर जीत और खुशी पर
सामने का काला पहाड़ बजाने लगता है तालियाँ
जब शोकग्रस्त गाँव के किसी आँगन से
*निशाण* और *बैंन्ज * की धुनों के साथ
कोई रुखसत होता है
सामने का काला पहाड़ झुक जाता है शोक से
एक अनदिखा आंसू उसके ह्रदय से टपक जाता है
जब रात दिन
सैंकडों गाडियां उसके सीने को रौदते हुए
अलग -अलग देसी बीट के धुन बजाते हुए
अपने -अपने मंजिलों की ओर जाते हैं
वो काला पहाड़ नाच उठता है उन धुनों पर
एक पागल आशिक की तरह
पहाड़ को यूं नाचता देख
पास बहती नदी अक्सर मुस्कुरा उठती है
पेड चहक उठते हैं
जबकि इन सब बातों से दूर
बर्फ के घरों में दुबके लोग
चुपके -चुपके, खामोश रात में
पहाड के पर काटने की बात कर रहे हैं
पहाड़ को बेचने की बात कर रहे है
और सामने का पहाड़
गुनगुना रहा है
वोही *घुरे * और *सुगली* से भरे दिनों को
तालियाँ बजा रहा है,बच्चो की हर खुशी पर
गमज़दा हो रहा है,गांव के हर गम में
और वो पहाड़ अब भी नाचता है
देसी बीट की उन्ही धुनों पर
* सुरपी * :- निडाई करना *घुरे* :- लोक गीत
*सुगली *:--- पुराने ज़माने में किसी की मृत्यु पर गाया जाने वाला शोक गीत. जिसमे मरने वाले की जीवन यात्रा का वर्णन होता था
*डू -म-डू * थिपी *:- खेलों के नाम , जैसे लुका -छिपी या पकड़म -पकडाई .
*अका/ माग * :-आंऊ कि नहीं
*निशाण* :- नगाडा
*बैंन्ज* :- बांसुरी

Thursday, November 15, 2012

घर

घर -1
याद आता है अक्सर
बचपन का वो घर
जहाँ हर चीज़ बिखरी होती
सब अस्त –व्यस्त
जहाँ कोई भी चीज़
सलीके से नहीं रखी जाती
फिर भी कितना सुकून मिलता था
उस घर के हर कोने में
घर -2
कितना मुस्कुराता है वो घर
जिसकी दीवारों में गूँजती है
बच्चों की किलकारियां
जिसके फर्श पर बिछी होती है
आपसी प्रेम का कालीन
और जिसकी छत पर
कोमल हाथ होता है बुजुर्गों का
घर -3
एक घर वो बना रहा है
ईंट, सीमेंट और पत्थर से
रोबदार और सख्त घर
एक घर में बना रही हूँ
अपनी भावनाओं का आटा गूँथ
रूप दे रही हूँ एक जीवन को
जिसकी नींव गहरी और पक्की है
घर -4
खँडहर है अब वो घर
जहाँ हर रात सजा करती थी
सितारों की महफ़िल
जहाँ दिन भर गूंजा करती थी
ठहाकों की आवाज़
अब वो घर अन्धकार में डूबा है
चाँद उसके दरवाज़े पर नहीं आता
उसके दिन खामोश हो गए है
रात और दिन कतरातें है
उससे मिलने के लिए भी
घर -5
घर आज घर नहीं रहे
वो बन गए है प्रतिष्ठा का प्रतीक
हर घर की गर्दन ऊंची है
कोई नहीं देखना चाहता नीचे
अपने आधार को
सब आसमान छूना चाहते है
अलग - अलग रंगों से पुते यह घर
अपने रंगीन होने पर इतराते हैं
इन घरों को नाचते हुए देख
दूर एक झोंपड़ी
मुस्कुराता है हर -पल
खुश है कि उसे नाचना नहीं आता
(16-11-2012)

Friday, November 2, 2012

बुतों में बुद्ध को ढूँढ रही हूँ

बुतों में बुद्ध को ढूँढ़ रही हूँ
कहीं पीतल का बुद्ध
कहीं सोने का बुद्ध
तो कहीं पत्थर का बुद्ध
हर जगह
एक पहाड़ की तरह
खामोश बुद्ध
और मैं ढूँढ रही हूँ
ऐसे बुद्ध को
जो मुझसे बातें करें
जो मेरी नादानी पर हँसे
जो मेरी गलतियों पर गुस्सा करें
जो मेरे नाटक का हिस्सा बने
जो मेरे साथ खेले
जो मेरे साथ रोए
पर हर जगह मिलता है मुझे
एक मौन बुद्ध
अलग - अलग परिभाषाओं में
परिभाषित बुद्ध
कहीं गुरु , तो कहीं भगवान ,
कहीं लोगों की आकांक्षाओं के बोझ तले
दबा हुआ बुद्ध
तो कहीं भौतिकता का प्रतीक बनता
जा रहा बुद्ध
कहाँ है वो शांत , सौम्य, मुस्कुराता बुद्ध
कहाँ है वो बुद्ध
जिसकी छवि सदियों से
इन पहाड़ों के ज़ेहन में है
कहाँ है वो बुद्ध
जिसे मैं बचपन से सुनती आ रही हूँ
चाँद मेरे सवालों पर हँसता है
हवाएं मुझे छूकर गुज़र जाती हैं
और दूर कहीं
पहाड़ की ख़ामोशी को तोडती
नदी का शोर सुनाई दे रहा है
और मैं बुतों में बुद्ध को ढूँढ रही हूँ