Thursday, February 10, 2011

तुम कहाँ नहीं हो

तुम कहाँ तो कहाँ नहीं हो
एक भूखे कि भूख में
एक प्यासे कि प्यास में
जीवन कि आस लिए उन आंखों में
जिनके जीवन कि लो बुझने वाली है
किसी की गर्व भरी अट्टहास में
किसी के दर्द भारी आसुंओ में
रोटी की तलाश में कूड़े बीनते बच्चे में
रोटी की जगह पिज्जा खाने कि जिद करते बच्चे में
दोस्त की दोस्ती में
दुश्मन की दुश्मनी में
तुम कल कल बहती शांत नदी में हो
बाढ़ से तबाही मचाती नदी में हो
प्रकृति के सौंदर्य में तुम
एक असहाय प्रकृति में तुम हो
किसी की महत्वाकांक्षा में तुम
किसी के लिए जीवन हो तुम
सब तुम्हे लिखते हैं
तुम कितना लिख पाती हो सब को
सब तुम्हे कविता कहते हैं
पावन शब्दों और भावों से सजती हो तुम
तुम मुझे में इस तरह समाई हो
फिर भी मैं कहाँ लिख पाती हूँ वो सब
जो तुम मुझसे कहती हो
फिर भी खुश हूँ
तुम मैं अब भी बाकी हूँ *मैं *

3 comments:

  1. आपने कविता की सर्वव्यापकता का बोध कराया ..धन्यवाद ....
    बहुत सुन्दर लिखा है .......

    "नव रस का आनंद
    मन का स्पंदन
    भावो की मुखरता
    सूक्ष्म ऊर्जा का आवंटन
    ओ..! काव्य की धुरी
    तुम कविता हो... तुम कविता हो... "

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  2. तुम कहाँ तो कहाँ नहीं हो
    एक भूखे कि भूख में
    एक प्यासे कि प्यास में
    ___________

    achchhee panktiyaa

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