तुम कब आओगे मैत्रिये
अब हिमालये भी टूट कर दरक रहा है
ज़मीन सागर में डूब रही है
जंगल में लोगों का बसेरा हो गया है
अब गाँव भी गाँव ना रहे
किसान फसलों कि जगह सोना उगा रहे हैं
चारों तरफ फ़ैली
अराजकता ,भ्रष्टाचार और व्यभिचार है
इंसान इंसान बनने को तैयार नहीं
दूसरे कि जान पर जता रहा अपना अधिकार है
रिश्ते बाजार में बिक रहे हैं
अपने झूटे दंभ में हर कोई मजबूर दिख रहा है
चाँद और सूरज भी रौशनी फ़ैलाने से कतरा रहे हैं
तुम कब आओगे मैत्रीय
शायद तुम्हे उस वक़्त का इंतज़ार है
जब करुणा ,शब्द और भाव
दोनों से गायब हो जाएगी
तब दोगे तुम नई परिभाषा
करुणा की .............
वेदना को जीती हुई रचना...
ReplyDeleteकरुण कथा का अंत कहाँ!
nice one...
ReplyDeleteआज के इंसान और इंसानियत को परिभाषित करती प्रशंसनीय प्रस्तुति - बधाई
ReplyDeleteअब हिमालये भी टूट कर दरक रहा है
ReplyDeleteज़मीन सागर में डूब रही है
सुनीता जी हिमाचल के दर्द के दर्द के साथ ..जीवन की वास्तविकताओं को अपने उजागर कर दिया है ..बहुत सुंदर पोस्ट ..आपका आभार
आपका प्रोफाइल और ब्लॉग देखकर मन हर्षित हुआ ..किसी पडोसी को ब्लॉग जगत में पाकर, यह होना स्वाभाविक है ..आप निरंतर लिखती रहें ...इसी तरह अनवरत ..शुभकामनायें
ReplyDeleteधन्यवाद आप सभी का आपने मेरी कविता को पढ़ा व् सराहा ,,
ReplyDeletegood one
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट आभार|
ReplyDeleteआपको पढकर बहुत अच्छा लगा .. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteशानदार पेशकश।
ReplyDeleteडॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक)एवं
राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
0141-2222225 (सायं 7 सम 8 बजे)
098285-02666