Wednesday, December 22, 2010

तुम कब आओगे मैत्रीये

तुम कब आओगे मैत्रिये
अब हिमालये भी टूट कर दरक रहा है
ज़मीन सागर में डूब रही है
जंगल में लोगों का बसेरा हो गया है
अब गाँव भी गाँव ना रहे
किसान फसलों कि जगह सोना उगा रहे हैं
चारों तरफ फ़ैली
अराजकता ,भ्रष्टाचार और व्यभिचार है
इंसान इंसान बनने को तैयार नहीं
दूसरे कि जान पर जता रहा अपना अधिकार है
रिश्ते बाजार में बिक रहे हैं
अपने झूटे दंभ में हर कोई मजबूर दिख रहा है
चाँद और सूरज भी रौशनी फ़ैलाने से कतरा रहे हैं
तुम कब आओगे मैत्रीय
शायद तुम्हे उस वक़्त का इंतज़ार है
जब करुणा ,शब्द और भाव
दोनों से गायब हो जाएगी
तब दोगे तुम नई परिभाषा
करुणा की .............


10 comments:

  1. वेदना को जीती हुई रचना...
    करुण कथा का अंत कहाँ!

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  2. आज के इंसान और इंसानियत को परिभाषित करती प्रशंसनीय प्रस्तुति - बधाई

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  3. अब हिमालये भी टूट कर दरक रहा है
    ज़मीन सागर में डूब रही है
    सुनीता जी हिमाचल के दर्द के दर्द के साथ ..जीवन की वास्तविकताओं को अपने उजागर कर दिया है ..बहुत सुंदर पोस्ट ..आपका आभार

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  4. आपका प्रोफाइल और ब्लॉग देखकर मन हर्षित हुआ ..किसी पडोसी को ब्लॉग जगत में पाकर, यह होना स्वाभाविक है ..आप निरंतर लिखती रहें ...इसी तरह अनवरत ..शुभकामनायें

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  5. धन्यवाद आप सभी का आपने मेरी कविता को पढ़ा व् सराहा ,,

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  6. बहुत सुंदर पोस्ट आभार|

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  7. आपको पढकर बहुत अच्‍छा लगा .. इस नए चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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  8. शानदार पेशकश।

    डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
    सम्पादक-प्रेसपालिका (जयपुर से प्रकाशित हिंदी पाक्षिक)एवं
    राष्ट्रीय अध्यक्ष-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास)
    0141-2222225 (सायं 7 सम 8 बजे)
    098285-02666

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