Thursday, August 27, 2015

विरोध



एक दिन पहाड़ के घर में
घुस आते हैं कुछ लोग
अजीब सी शक्लों वाले
वो पहाडी तो बिलकुल नहीं थे
क्योंकि उनकी आवाज़ों में चीख थी
आँखों में बहशीपन
हाथों में तीखी कटारें
और चेहरें पर घाघपन
इससे पहले कि पहाड़ अपनी खामोशी तोड़ता
अपनी कटारों से चीर देते हैं वो पहाड़ के घर का दरवाज़ा
और घुस जाते हैं उसके भीतर और भीतर
और धीरे-धीरे छीनने लगते है पहाड़ से
उसके भीतर की दुनिया
उसका ह्रदय ,और भीतर का सारा रक्त, हड्डी और मांस
और फैंक आते है उसे
साथ बहती नदी की गोद में
और धीरे धीरे
एक और पहाड़ उगने लगता है
नदी के सीने में
फिर नदी भी कैद हो जाती है
अपने ही सीने में उगे पहाड़ के भीतर
पास के गाँव में इन तमाम घटनाओं की खबर है
और उन गाँवों के भीतर पक रहां है विरोध का स्वर
पर विरोध को भी मुखर होने से पहले
अपने ही भीतर के विरोध से गुज़रना पड़ता है
और फिर
गाँव के कुछ चेहरों में भी घाघपन आ जाता है
जबकि कुछ चेहरे पहाड़ और नदी का दर्द अपने भीतर समेटे
उनके पक्ष की लड़ाई लड़ते हैं
उनके ह्रदय में पहाड़ सा धैर्य
और इरादों में नदी सी निरन्तरता होती है
जिसे दुनिया की कोई भी सत्ता हरा नहीं सकती
अपने आँगन में हलचल देखकर
पहाड़ और नदी के भीतर भी कुछ उग रहा है
क्या पौधे ? खनिज? या फिर विरोध का भाव ?

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